Election Stories : पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू चुनावों में नहीं करना चाहते थे जहाज का इस्तेमाल, क्या है इसके पीछे की वजह
Election Stories : क्या आपको मालूम है कि आम चुनावों में सरकारी विमान का इस्तेमाल भारत में केवल एक शख्स ही कर सकता है और वो देश के प्रधानमंत्री होते हैं, जो चुनाव प्रचार में अपने सरकारी विमान का इस्तेमाल करते रहे हैं। ये प्रावधान कैसे शुरू हुआ, इसका भी दिलचस्प किस्सा है।
बेशक इसकी शुरुआत भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से हुई लेकिन इसका फायदा उनके बाद सभी प्रधानमंत्रियों को मिला। हालांकि इसकी वजह भी है। वैसे नेहरू नहीं चाहते थे कि जब वह चुनाव प्रचार कर रहे हों तो सरकारी विमान से जाएं लेकिन उन्हें ये बात माननी पड़ी।
जानते हैं कि एमओ मथाई ने अपनी किताब “रेमिनिसेंसेस ऑफ द नेहरू एज” में इस बारे में क्या लिखा है। आपको बता दें कि मथाई ने अपनी किताब में इस बारे में एक पूरा चैप्टर ही लिखा है, इस चैप्टर का शीर्षक है- यूज ऑफ एयर फोर्स एयरक्राफ्ट बाई द प्राइम मिनिस्टर।
नेहरू नहीं लेना चाहते थे एयरफोर्स के विमान
मथाई लिखते हैं, ये 1951 के मध्य की बात है। इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर उनके पास आए। उन्होंने पहले आमचुनावों के दौरान प्रधानमंत्री की सुरक्षा पर चिंता जाहिर की। उनका कहना था कि नेहरू को अगर पर्याप्त सुरक्षा और सुविधा नहीं मिली तो उनकी जान को खतरा हो सकता है।
वो नहीं चाहते थे कि प्रधानमंत्री नियमित कामर्शियल उड़ानों से चुनावों के दौरान यात्रा करें। उस समय कामर्शियल विमानों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी।
क्या लिया था कमेटी ने फैसला
इसके बाद आईबी डायरेक्टर ने मथाई से कहा कि क्या ये संभव नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री एयरफोर्स के विमान से चुनावों के दौरान यात्रा करें और इसका भुगतान करें। इससे उनके साथ सुरक्षा भी चल सकेगी और उनका सरकारी स्टाफ भी। ताकि इस दौरान भी वो अपने जरूरी कामकाज निपटाते रहें।
इसके बाद मथाई ने इसकी चर्चा कैबिनेट सेक्रेटरी एनआऱ पिल्लै से की। उन्होंने इस बारे में सीनियर अधिकारियों की एक कमेटी बनाने की सलाह दी, जो इस बारे में अपनी राय दें।
इस कमेटी में जो तीन बड़े अधिकारी नियुक्त हुए, उसमें तत्कालीन रक्षा सचिव तरलोक सिंह भी थे, कमेटी के चेयरमैन खुद कैबिनेट सेक्रटरी पिल्लै थे। उसमें यही तय हुआ कि प्रधानमंत्री बेशक चुनाव के दौरान अपनी पार्टी की ओर से यात्रा करें।
लेकिन वो प्रधानमंत्री होने के नाते अपने काम जारी रखें और उनकी पर्याप्त सुरक्षा भी हो, लिहाजा प्रधानमंत्री एयर फोर्स के विमान का इस्तेमाल कर सकते हैं। हां इस यात्रा में जो खर्च होगा, उसे उन्हें वहन करना होगा। उन्हें कामर्शियल हवाई यात्रा के बराबर पैसे का भुगतान करना होगा।
नेहरू हिचक रहे थे
लेकिन नेहरू इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए। वो चाहते थे कि इस पर कैबिनेट में भी चर्चा होनी चाहिए ताकि इस मामले पर सहमति से राय बने। हालांकि इसके बाद भी वो इस बात पर हिचक भी रहे थे और दूसरे विकल्प को देखने की बात कर रहे थे।
मथाई लिखते हैं कि तब मैंने इस मैटर पर कंट्रोलर एंड आडिटर जनरल (सीएजी) से बात की। उनके पास संबंधित फाइल भेज दी गई। दो तीन दिन बाद ये फाइल इस टिप्पणी के साथ लौटाई गई कि ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद सीएजी के इस नोट को कैबिनेट सदस्यों तक पहुंचा दिया गया।
नियम बनाया गया नेहरूअपनी यात्रा के लिए सरकार को उतना किराया दें, जो किसी एयरलाइन में यात्री को देना होता है। इसके साथ जाने वाले सुरक्षा स्टाफ और पीएम के अपने स्टॉफ का किराया सरकार दे। अगर कोई कांग्रेसी इस विमान में प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करता है तो वो भी अपना किराया दे।
बाद में ये व्यवस्था नेहरू के बाद हुए प्रधानमंत्रियों को मिलने लगी। प्रधानमंत्री सरकार का अकेला शख्स होता है, जो सरकार से मिले विमान का इस्तेमाल कर सकता है। उस पर चुनाव आयोग से कोई मनाही नहीं होती है।
विमान का कोई खर्चा प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर नहीं देना होता सिवाय खुद के यात्रा खर्च के। ये खर्च भी उनकी सियासी पार्टियां अपने फंड से वहन करती हैं। मथाई ने लिखा है कि नेहरू चाहते थे कि चुनावों में वो वायुसेना का इस्तेमाल तभी करेंगे जब इस पर पर्याप्त बहस और सहमति बन जाएगी
चुनावों में किया था डाकोटा का इस्तेमाल
1951 में भारतीय एयरफोर्स के पास केवल कुछ डाकोटा विमान थे। जो बहुत ज्यादा दूरी नहीं तय कर सकते थे। नेहरू को उस चुनाव में इस्तेमाल के लिए यही विमान मिले। काफी सालों बाद भारत के पास चार इंजन वाले मझोले ब्रिटिश विस्काउंट जेट आए।
नाव से भी की यात्रा
1951-52 के आमचुनावों में नेहरू ने हवा से 18,348 मील की यात्रा की, कार से उन्होंने 5682 मील की दूरी तय की। उन्होंने 1612 मील का सफर ट्रेन से किया। साथ ही वो नाव से भी 90 मील चले।
इस चुनावों में उन्होंने 305 भाषण दिये, जिसे कुल तीन करोड़ लोगों ने उनकी सभा में सुना। उन्होंने इन टूर में कुल मिलाकर अपने 46 दिन खर्च किए। 1951-52 के चुनावों के दौरान जिन वायुसेना के विमानों का इस्तेमाल हुआ, वो डाकोटा विमान थे, जो एक बार में बहुत अधिक दूरी नहीं तय कर सकते थे
बाद के प्रधानमंत्रियों ने क्या किया
किताब में आगे लिखा गया है जैसा कि मैं जानता हूं कि नेहरू के बाद जितने भी प्रधानमंत्री हुए, उन्होंने कभी अपने गैर आधिकारिक दौरों के लिए सीएजी की राय लेने की जरूरत नहीं समझी। क्योंकि उन्हें लगता था कि सीएजी शायद इसके लिए राजी नहीं होंगे।
इसलिए कहना चाहिए कि बाद के प्रधानमंत्रियों ने जिस तरह गैर आधिकारिक यात्राओं के लिए एयरफोर्स के विमानों का इस्तेमाल किया, वो उचित नहीं था।
नेहरू ने बाद में दो बार ही वायुसेना के विमान का इस्तेमाल किया
अपनी विदेशी यात्राओं के लिए नेहरू सामान्यतया एयर इंडिया की कामर्शियल फ्लाइट्स का ही इस्तेमाल करते थे। मैं दो मौकों को याद कर सकता हूं जबकि जबकि उन्होंने आईएएफ के विस्काउंट विमान का इस्तेमाल किया।
एक तब जबकि उन्होंने सीरिया, जर्मनी, डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, इंग्लैंड, मिस्र और सूडान देशों की एक साथ यात्रा की। दूसरा मौका तब था जबकि वो सांसदों के प्रतिनिधिमंडल के साथ सऊदी अरब गए थे।
दोनों मौकों पर एयर फोर्स के चीफ ने खुद कहा था कि प्रधानमंत्री को भारतीय वायुसेना के विमान से जाना चाहिए ताकि एयरफोर्स के कुछ चुने हुए पायलटों को कुछ बढ़िया अनुभव मिल सके।
दुर्गा दास अपनी किताब ‘फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर’ में भी इसका जिक्र किया है। बकौल उनके, “नेहरू को ये ठीक नहीं लगा कि वो उस जहाज़ में चुनाव प्रचार करें जिसे वो प्रधानमंत्री के तौर पर इस्तेमाल करते थे।
दूसरी तरफ़ न तो उनके पास और न ही कांग्रेस पार्टी के पास इतने पैसे थे कि वो चुनाव प्रचार के लिए हवाई जहाज़ चार्टर कर सकें।” हालांकि कहना चाहिए चतुर ऑडिटर जनरल ने जो फार्मूला निकाला, उसने कांग्रेस की उस चुनावों में मदद तो की ही। इससे नेहरू पूरे देश में दौरा करके चुनाव प्रचार कर सके।