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राजस्थान से बड़ी खबर ! भील प्रदेश की मांग, जानें क्या है राजस्थान में आदिवासी राज्य बनाने की कहानी?

राजस्थान के मानगढ़ धाम में आयोजित एक विशाल रैली के दौरान, बांसवाड़ा के सांसद राजकुमार रोत ने स्वतंत्र 'भील राज्य' की लंबित मांग को फिर से उठाया। उनका कहना है कि एक प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलकर इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करेगा।
 
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Rajasthan News: राजस्थान के मानगढ़ धाम में आयोजित एक विशाल रैली के दौरान, बांसवाड़ा के सांसद राजकुमार रोत ने स्वतंत्र 'भील राज्य' की लंबित मांग को फिर से उठाया। उनका कहना है कि एक प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलकर इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करेगा।

राजकुमार रोत ने कहा कि एक अलग आदिवासी राज्य का गठन आदिवासी समुदाय के विकास के लिए जरूरी है। इसके जवाब में, राज्य के आदिवासी क्षेत्र विकास मंत्री बाबूलाल खराड़ी ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन जाति के आधार पर राज्य बनाना उचित नहीं है।

भील समुदाय की यह मांग नई नहीं है। 1913 में भील समाज सुधारक गोविंद गुरु ने आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग की थी। यह मांग उस समय के मानगढ़ हत्याकांड के बाद उठाई गई थी, जिसमें ब्रिटिश सेना ने सैकड़ों भील आदिवासियों की हत्या की थी।

भील समुदाय ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, और महाराष्ट्र के हिस्सों को मिलाकर एक अलग राज्य की मांग की है। गोविंद गुरु ने 1913 में आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग की। 2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में आदिवासी लगभग 14% हैं, मुख्य रूप से वागड़ क्षेत्र में।

बीटीपी (भारतीय ट्राइबल पार्टी) और बीएपी (भारत आदिवासी पार्टी) जैसे क्षेत्रीय दलों ने इस मांग को प्रमुखता दी है। बीटीपी के अध्यक्ष डॉ. वेलाराम घोगरा का कहना है कि आदिवासी क्षेत्रों को राजनीतिक दलों ने विभाजित किया है ताकि आदिवासी संगठित न हो सकें।

बीटीपी और बीएपी जैसे दलों ने आदिवासी समुदाय को सशक्त बनाने के लिए काम किया है। 2020 में, बीटीपी समर्थित उम्मीदवारों ने डूंगरपुर जिला परिषद चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया। बीएपी ने भी आदिवासी संस्कृति और परंपराओं पर जोर दिया है, और कई नेताओं ने हिंदू धर्म और RSS के प्रभाव का विरोध किया है।

भील प्रदेश की मांग आदिवासी समुदाय की लंबे समय से चली आ रही मांग है। इस मांग के समर्थन में कई ऐतिहासिक और सामाजिक तर्क हैं, और यह मांग विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा उठाई जाती रही है। अब देखना यह है कि सरकार इस मुद्दे पर क्या कदम उठाती है और क्या आदिवासी समुदाय की यह लंबी बहुपरकारी मांग पूरी होती है।