India H1

Trending news :  इमर्जेंसी में करते है SOS का इस्तेमाल, मुश्किल में फंसने पर बच जाएगी जान 

 
इमर्जेंसी में करते है SOS का इस्तेमाल

Trending news : हाइवे पर चलते हुए आपकी नजर रोड के बगल में बने टेलीफोन बूथ पर गई होगी जिसके ऊपर SOS लिखा होता है। या फिर डॉक्टरों के पर्चे, या अस्पताल के नंबरों के आगे SOS लिखा भी आपने देखा होगा।

कई बार तो आपने कार्टूनों या फिल्मों में देखा होगा उसमें किरदार SOS लिखकर मदद मांगते हैं। तो क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर एसओएस का मतलब क्या होता है?

(What is SOS) अगर आप नहीं जानते, तो तुरंत जान लीजिए क्योंकि अगर आप मुश्किल में फंस गए हैं तो ये आपके लिए बहुत काम आएगा। एसओएस एक प्रकार का डिस्ट्रेस सिग्नल (What Does SOS Stand For) है।

पहले के समय में माना जाता था कि इसका फुल फॉर्म (Why SOS used as distress call) सेव आर सोल या सेव आर शिप है। पर असल में ये मोर्स कोड का एक साइन था। मोर्स कोड एक प्रकार की संपर्क प्रक्रिया है जिसमें डॉट या डैश के सहारे अक्षरों को संदेश के जरिए भेजा जाता है।

इसमें तीन डॉट, तीन डैश और तीन डॉट (…—…) होते हैं। इंटरनेशनल मोर्स कोड में तीन डॉट का मतलब S होता है वहीं तीन डैश का मतलब O होता है, इस वजह से इस मोर्स कोड को SOS कहने लगे।

कैसे बना एसओएस?

अब सवाल ये उठता है कि एसओएस के पीछे क्या लॉजिक है? 20वीं सदी में जब वायरलेस रेडियो टेलीग्राफ मशीनें शिप पर लगना शुरू हुईं, तब नाविकों को ऐसे संकेतों की जरूरत पड़ी, जो बता सकें कि वो खतरे में हैं। इस तरह वो मदद मांगा करते थे।

उन्हें ऐसे खास सिग्नल की जरूरत पड़ती थी, जिससे साफ और आसान तरीके से मदद की गुहार लगाई जा सके। उस वक्त अलग-अलग संस्थाएं, अलग-अलग संदेशों के तरीकों का प्रयोग किया करती थीं।

उदाहरण के तौर पर अमेरिकी नेवी NC का प्रयोग करती थी, वहीं मारकोनी कंपनी CQD का प्रयोग किया करती थी। जर्मन रेगुलेशन्स फॉर द कंट्रोल ऑफ स्पार्क टेलीग्राफी ने 1905 में ये नियम बनाया कि सभी जर्मन ऑपरेटर (…—…) का प्रयोग करेंगे।

ऐसे हुआ था ये कोड लागू

अलग-अलग डिस्ट्रेस कॉल होने की वजह से मदद मांगने में भी समस्या होती थी और ये खतरनाक भी हो सकता था। वो इसलिए क्योंकि कई बार नाविक विदेशी पानी में होते थे, और तब दूसरे देश के ऑपरेटर को समस्या के बारे में बताना मुश्किल हो जाता।

इस वजह से 1906 में इंटरनेशनल वायरलेस टेलीग्राफ कन्वेंशन ने बर्लिन में बैठक बुलाई और एक इंटरनेशनल स्टैंडर्ड डिस्ट्रेस कॉल की शुरुआत की। जर्मनी के डिस्ट्रेस कॉल (…—…) को आसान माना गया

, इस वजह से 1 जुलाई 1908 को इसी संदेश को चुन लिया गया। अब के वक्त में मोर्स कोड की जगह SOS लिखकर या बोलकर भी लोग इसका प्रयोग कर लेते हैं।